रामायण के अनुसार मित्र के गुणों का वर्णन
मित्र कैसा होना चाहिये यह रामायण में उल्लेख आया है जब सुग्रीव और राम जी की मित्रता अग्नि को साक्षी मानकर हनुमान जी ने कराई थी उसी का विवरण नीचे दिया गया है ।
जे न मित्र दुख होहिं दुखारी ।
तिन्हहि विलोकत पातक भारी।।
निज दुख गिरि सम रज कर जाना ।
मित्रक दुख रज मेरु समाना।।
अर्थात जो मित्र अपने मित्र के दुख को देख कर दुखी न हो उस मित्र को देखने से भी वड़ा पाप लगता है अपना दुख पर्वत के समान होने पर भी उसे रज (धूल )के समान समझना चाहिऐ,और मित्र का दुख रज (धूल) के समान भी हो तो उसे पर्वत के समान समझना चाहिऐ ।अर्थात मित्र के दुख का निराकरण पहिले करना चाहिऐ।अपने दुख का बाद मे ऐसा नही कि मित्र के सामने अपना दुख लेके बैठ जाऐं।
जिन्ह कें असि मति सहज न आई।
ते सठ कत हठि करत मिताई।।
कुपथ निवारि सुपंथ चलावा।
गुण प्रगटै अवगुनन्हि दुरावा।।
अर्थात जिन्हें स्वभाव से ही ऐसी बुद्धि प्राप्त नहीं है वह मनुष्य हठ करके मित्रता क्यों करते हैं ऐसे व्यक्ति मित्रता करने के अधिकारी नहीं है ।मित्र का धर्म है कि मित्र को गलत रास्ते पर जाने से रोके और उसे अच्छे मार्ग पर ले जाऐ।सदा ही मित्र के गुणों को प्रकट करे और मित्र में जो अवगुण हो वह दूसरों के सामने छुपाऐ।
देत लेत मन शंक न धरई।
वल अनुमान सदा हित करई।।
बिपति काल कर सतगुन नेहा।
श्रुति कह संत मित्र गुन एहा।।
अर्थात मित्र को देते समय या लेते समय मन में शंका नही आना चाहिऐ।जैसे मित्र की मदद कुछ पैसे से कर दी तो मन में यह विचार नही आना चाहिऐ कि मुझे पैसे वापिस मिलेगे या नही यही शंका है।अपने वल (सामर्थ) का अनुमान लगा कर सदा मित्र का हित ही करना चाहिऐ।
मित्र की विपत्ती के समय तो सदा सौ गुणा स्नेह करना चाहिए। वेद कहते हैं श्रेष्ठ मित्र के यही लक्षण है।
आगें कह मृदु वचन वनाई।
पाछें अनहित मन कुटिलाई।।
जाकर चित्त अहि गति सम भाई।
अस कुमित्र परिहरेहिं मिताई।।
अर्थात जो मित्र के सामने बना बना कर मीठे मीठे वचन कहता है और पीठ पीछे यानि बाद मैं मित्र की बुराई करता है तथा मन में कुटिलता रखता है हे भाई जिसका मन साँप की भाँति टेढा है ऐसे कुमित्र को त्यागने में ही भलाई है।
सेवक सठ नृप कृपन कुनारी।
कपटी मित्र शूल सम चारी।।
सखा सोच त्यागहु बल मोंरे।
सब बिधि घटब काज में तोरे।
अर्थात मूर्ख सेवक,कंजूस राजा, कुलटा(चरित्रहीन) स्त्री, और कपटी मित्र,ये चारों शूल के समान पीड़ा देने वाले है। इन्हें जितनी जल्दी हो इनका त्याग कर देने में ही भलाई है । राम जी कहते हे सखा (मित्र) मेरे बल पर अब तुम चिन्ता छोड़ दो ,मैं सब प्रकार से तुम्हारे काम आऊँगा तुम्हारे दुखों को समाप्त कर दूंगा।
राम जी ने पहिले मित्र के दुख का निवारण किया वाली को मारकर सुग्रीव की पत्नी दिलाई राज दिलाया,मित्रता करें तो राम और सुग्रीव जैसी करें ।
।।जय श्रीराम।।