सामाजिक विकास निर्भर है- सेवा सहायता सहयोग और संगठन पर

            सामाजिक विकास निर्भर है- सेवा सहायता सहयोग और संगठन पर  
                                           

    समाज में परस्पर सहानुभूति, सौजन्य सेवा, सहायता, सहयोग, संगठन आदि पर समाज का विकास निर्भर करता है। ये सब परमार्थ से ही संभव है। स्वार्थ और संकीर्णता से तो समाज में विघटन, संघर्ष आदि बढ़ता है।          

         जिस समाज में परमार्थ की प्रवृत्ति नहीं होगी उसका अस्तित्व कायम रहना असंभव होगा। अभिभावकों द्वारा बच्चों की सेवा, पालन-पोषण, शिक्षा-दीक्षा का ध्यान न रखा जाए और यह वृत्ति समाज में व्यापक बन जाए और यह वृत्ति समाज में व्यापक बन जाए तो मानव संस्कृति का हास होने लगेगा। परिवार, समाज, व्यावहारिक संबंधों में परस्पर प्रेम और सहानुभूतिजन्य आत्मीयता की भावनाएं नष्ट हो जाएं तो समाज के अविकसित, असमर्थ, अक्षम लोगों का जीवन दूभर होजाएगा। मनुष्य की प्रवृत्त्यिां इस परमार्थ वृत्ति से जितनी ही शून्य होती जाएगी। उतनी ही सामाजिक व्यवस्था दोष मुक्त बनती जाएंगी। व्यक्तिगत लाभ, स्वार्थ सिद्धि, समृद्धि के लिये मनुष्य कितना भी क्यों न करें, वह कितना ही संपन्न और वैभवशाली क्यों न बन जाए किंतु परमार्थ के लिये किसी भी तरह उपयोगी सिद्ध नहीं होता। उससे समाज के विकास में कोई योग नहीं मिलता। साथ ही उसका स्वयं का भी विकास रूक जाएगा, क्योंकि समाज के साथ ही व्यक्ति और व्यक्ति द्वारा ही समाज की विकास संभव है। 

   स्वार्थ-प्रधान, निजी लाभ रखने के दृष्टिकोण द्वारा, सुखी, सम्पन्न विकसित समाज का निर्माण नहीं हो सकता। ऐसी स्थिति में मनुष्य आपाधापी की भावना से प्रेरित होकर परस्पर छीना-झपटी, एक-दूसरे के प्रति षडयंत्रा ईर्ष्या-द्वेष में लीन हो जाएगा। समाज में एक-दूसरे के प्रति अविश्वास, संदेह, भय, शंका की वृद्धि होगी और इससे समस्त समाज में विकृतियां दोष पैदा हो जाएंगे। धोखेबाजी, ठगी, भ्रष्टाचार, लूट-खसोट, डकैती, शोषण जैसे भयंकर अपराधों का सूत्रापात मनुष्य की इस स्वार्थ प्रधान, निजी लाभ की संकोची मनोवृत्ति के कारण ही होता है। इस स्थिति में व्यक्ति अपने जीवन में कितना ही समृद्ध शक्तिशाली, सम्पन्न क्यों न हो, सुख-शाांति, आनंद से वंचित रहेगा। क्षण-क्षण, पल-पल उसे नई चिंता, षडयंत्रा संघर्ष दूसरों के आक्रमण का सामना करना पड़ेगा। जीवन उसके लिये एक अभिशाप सिद्ध होगा। 

   समाज में परस्पर सहानुभूति, सौजन्य सेवा, सहायता, सहयोग, संगठन आदि पर समाज का विकास निर्भर करता है। ये सब परमार्थ से ही संभव है। स्वार्थ और संकीर्णता से तो समाज में विघटन, संघर्ष आदि बढ़ता है।

   आवश्यकता इस बात की है कि हमारा जीवन, हमारे सभी कार्यकलापों का आधार व्यक्तिगत न होकर समष्टिगत हो, सार्वभौमिक हो। रचनात्मकता दूसरों के लिये हितकारी है। मनुष्य अपने लिये न जिए वरन् समाज के लिये संसार के लिये जिए। इसी सत्य पर व्यक्ति का विकास उत्थान संभव है और साथ ही समाज में परस्पर सहयोग,आत्मीयता, सौजन्य के संबंध कायम होते है। विश्व-यज्ञ में मनुष्य का प्रत्येक प्रयास आहुति डालने के सदृश्य हो तो धरती पर ही स्वर्ग की कल्पना साकार हो उठे।

    मनुष्य द्वारा उपार्जित अर्थ सामग्री उसके स्वयं के उपयोग अथवा संग्रह के लिये नहीं वरन् सदुपयोग के लिये होनी चाहिए। उसका आधार सर्वजनहिताय होना चाहिए। इसलिये वेदो में ऋृषियों ने आदेश दिया है कि ’’सौ हाथों से कमा और हजार हाथों से दान कर। आम का वृक्ष कुछ ही मनुष्यों से श्रम-सेवा और पोषण सामग्री प्राप्त करता है, किंतु जो प्राप्त करता है उसे असंख्यों मधुर फलों से जन-जन को तृप्ति देता है। 

   किसी क्षेत्र में शक्ति, सामर्थ्य अर्जित करके मिला हुआ उच्चपद,प्रतिष्ठा बुरी नहीं है। जीवन के सर्वांगीण विकास में इनकी आवश्यकता भी है, किंतु शक्ति, सामर्थ्य, पद सत्ता का उपयोग गिरे हुओं को उठाने के लिये, जीवनपथ में भटके हुओं को मिलाकरृ आगे निकालकर आगे बढ़ने, आगे बढ़ने वालों को सहारा देने में हो तभी इसकी सार्थकता है जो अपनी सामर्थ्य, शक्ति, सत्ता, पद के अभिमान में चूर होकर दूसरों को गिराते है, दूसरों को हानि पहुंचाते है।दुःख-कष्ट देते है, मानव होकर भी मानवता पर अत्याचार करते है, उन्हें सामाजिक व्यवस्थापकों ने क्रूर कर्मी, पापी, दुष्ट कह कर हेय, निकृष्ट बताया है। इससे समाज का अहित हो, विघटन होता है और परस्पर संघर्ष, अशांति क्लेश को जन्म मिलता है।

 आनंदित होना, खुशियां मनाना मनुष्य जीवन की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। धरती पर जीव का अवतरण की यहां के सूर-दुलर्भ मानवीय आनंद की प्राप्ति के लिये होता है। किंतु इस तरह के आनंद उपभोग जन-जन के साथ मिलकर, समाज के साथ ही मनाए जाने चाहिए। भारतीय संस्कृति, धर्म और धर्म में सामूहिक मेले, त्यौहार, पर्व रीति-रिवाज भी इसी का एक हिस्सा है। नीतिकारों ने व्यक्तिगत एकाकी आनंदउपभोग को कोई स्थान नहीं दिया। हमारे पर्व, त्योहार, मेले आदि अमीर-गरीब, छोटे-बड़े, सबके लिये है। सुख भी समाज के साथ, दुःख भी समाज के साथ, यही आनंदउपभोग कर जीवन की कठिनाईयों से तर जाने का मूलमंत्रा है।

         इस तरह हमारे जीवन की समस्त प्रवृत्तियों का आधार बहुजन हिताय, परमार्थ, परार्थ-परायणता ही होना चाहिए, स्वार्थ परायणता नहीं। इसी में हमारे स्वयं के और समाज के जीवन का विकास, प्रगति का मंत्रा सन्निहित है। सबका हित, सबका सुख, सबका लाभ, सबका कल्याण हमारा जीवन दर्शन होना चाहिए। मंत्रा-दृष्टा ऋषि ने इसी सत्य की प्रेरणा देते हुये कहा है कि -   

   सर्वे भवन्तुः सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु, मा कश्चित् दुःख भागभवेत्।।

    सभी सुखी हों, सभी निरामय (निरोगी) हों। सब मंगलमय हो, कोई भी दुःखी न रहे।

सामुहिक  प्रयासों में ही समाज का विकास, व्यक्गित और पारविारिक उन्नति, सबके कल्याण का रास्ता निहित है। हमें अपने समस्त भेदभाव,स्वार्थ प्रधान लाभ, हानि छोड़ सम्मिलित प्रयत्नों से विकास यात्रा पर चलने के लिये दृढ़ प्रयत्न करना आवश्यक है, तभी हमारा और समाज का भविष्य उज्जवल होगा। 

         -  आभार सहित

  आपका ही-  अनिल भवरे 


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