बकरे की रूह से मेरी मुलाकात

  बकरे की रूह से मेरी मुलाकात 



ईद के दिन जब गुजरा में अपनी राहों से।

 तब लगा कि घिरा हूं, कई अज्ञात बाहों से।।


छुड़ा कर जब भागा खुद को उन बाहों से।

 तो आवाज फिर आई थी पीछे की राहों से।।


कि छुड़ाकर जाता कहां है, क्या तुझी में जवानी है।

 सुन दास्तां हमारी भी, जो दुख भरी कहानी है।।


हो गए जो शहीद धोखे में, उनकी रूहों की जुबानी है।

 मैंने कहा सुनाओ अब, मुझे तो बड़ी हैरानी है।।


तब उन्होंने बताया।


 कि हमें इंसान ने कैसे सताया।।।


 रूहे बोली,


कि जिनको हमने पालक जाना, और अपना रखवाला माना।

 उसी ने बनाया हमें, त्योहारी प्यारा खाना।।


रोज फिरते थे हाथ गले पर, आज फेर दी छुरी।

मेरे विश्वास का गला घोट कर, हालत कर दी बुरी।।


डरे नहीं जिससे कभी हम, और ना उसने डराया।

रोज खिलाता था जो पत्ती, आज हमें ही मार खाया।।


हम क्या जाने स्वार्थ छिपा था, इसके पालने और प्यार करने में।

 सोचो क्या मजा आता है कभी, विश्वासघात से मरने में।।


सबसे बड़ा नाम है जग के, प्राणियों में इंसान का।

पर स्वार्थ स्वाद में धारण चोला, यह भी कर लेता शैतान का।।


इच्छा पूरी करता है अपनी, नाम लेता भगवान का।

इतना घिनौना रूप बनेगा सोचा ना था इंसान का।।


दूध पिला कर हमने अपना, इनके बच्चे पाले हैं ।

और इन्हीं दुष्टों से अपनी, औलाद के लाले हैं।।


कैसा विश्वासघात दिखाया, आज हमें भगवान ने।

हम शैतानों से डरते रहे, मार खाया हमें इंसान ने।।


रहते होते यदि जंगल में, तो ऐसे तो ना मारे जाते।

आता कोई मारने से सिंह भी, तो दौड़ भाग तो दिखलाते।।


मर भी जाते तो सिंह के हाथों, और शहीद ही कहलाते।

करके विश्वास इंसानी भेड़िए का,ऐसे तो ना मारे जाते ।।


यह नामर्द और कायर इंसान, लेता हथियारों का सहारा है।

 बिन हथियार क्या इंसानों ने, कभी एक चूहा भी मारा है।।


विश्वास में करके प्यार से, हथियारों से मारा है।

कैसे न कहें शैतान उसे, इंसान नहीं हत्यारा है।।


हे खुदा जितना नहीं पुकारा तुझको, उतना मुझे पुकारा है। 

जिस दिन इक्छा हुई खाने की, बेरहमी से मारा है।। 


हे खुदा मेरा अनुभव सुन जो तुझको है बतलाना।

इंसान के बुलाने पर, कभी पास नहीं तू चले आना।।


वर्ना मार तुझे अपना, बना डालेगा ये खाना।

तू रहता है पता नहीं कहां, मैंने नजदीक से इसको जाना।। 


तब मैंने पूछा कि अब क्या करना है?


 तो रूहें बोली की,


 इच्छा एक लिए मन में, मेरी रूह यहीं पर भटक रही।

और इनके प्यारे बच्चों पर, अब मेरी नजरें अटक रही।।


की छुरी हाथ में मेरे हो, एक धारदार फौलाद की।  

काट काट कर लाशें बिछा दू, इन्सानी औलाद की।।


 इन्सानी की औलाद की। 


 आर्य पी एस यादव

 आर्य समाज मंडीदीप

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