★ गज़ल ★
मौत का ग़म नहीं ग़म तो ये है,
के आज ही वो गले पड़ रही है|
बेवजय जान लेने को जालिम,
अपनी जिद पर ये क्यों अड़ रही है|
अपने घर में ही हम कैद होकर,
कितने बेबस और लाचार है हम |
जिसको देखो वही मुह छुपाता,
दुरियाँ अपनो से बढ़ रही है |
कितनी निर्मम है ये महामारी,
लोग कहते हैं इसको कोरोना|
जिसके नाम में ही रोना लिखा है,
उसको जग की खुशी गड़ रही है|
हरेराम चौरे "विकट"