विवाह संस्कार और प्रचलित मान्यताऐं- एक दृष्टिकोण

विवाह संस्कार और प्रचलित मान्यताऐं- एक दृष्टिकोण


विवाह कोई ठेका या सौदा नहीं है। वरन् एक अटूट धार्मिक और पवित्र सम्बंध है जिसमें एक बार संबंध हो गया तो उसे जीवन भर निभाना उस दंपत्ति का परम कर्त्तव्य बन जाता है। किसी विवशता के कारण नहीं, किसी दबाव में नहीं, अपितु स्वेच्छा से प्रीतिपूर्वक कर्तव्य भावना से प्रसन्नतापूर्वक एक-दूसरे के सुख-दुःख में भागीदारी होना होता है।

     इस लोक और परलोक को संवारने के लिये विद्वानों ने मानव जीवन को चार भागों में विभक्त किया है जिन्हें चार आश्रमों के नाम से जाना जाता है। वह हैं ब्रम्हाचर्य,गृहस्थ,वानप्रस्थ और सन्यास। इन चारों की अपनी अलग विशेषताएं है। जिनकी बुनियाद धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष पर टिकी है। गृहस्थ आश्रम की महत्ता इन चारों आश्रमों में सर्वोपरि है। भरण-पोषण इत्यादि के लिये उक्त तीनों आश्रम इसी पर निर्भर है। यही बात इस आश्रम को श्रोष्ठता प्रदान करती है। इस आश्रम में प्रवेश के लिये सिर्फ वे ही अधिकारी है, जिन्होंने श्रेष्ठ कार्य के लिये स्वयं को बल, विद्या आदि से परिपूर्ण कर लिया हो,जो समाज में नागरिक होने के नाते अपने दायित्वों को जानता और समझता हो तथा हर प्रकार की कठिनाइयों का सामना करने की क्षमता रखता हो। यह बात महाराज मनु एवं अन्य विद्वानों के एक स्वर में स्वीकार की है। 

    गृहस्थ आश्रम का प्रारंभ विवाह संस्कार से होता है। यह हमारे उन संस्कारों में से ही एक है। संसार में विवाह प्रथा किसी न किसी रूप में सभी जगह व्याप्त है। विवाह के संबंध में भिन्न-भिन्न अनेकानेक दृष्टिकोण देखने को मिलते है। एक दृष्टिकोण के अनुसार विवाह एक ठेका है जिसे स्त्री पुरूष एक-दूसरे की आवश्यकता की पूर्ति के लिये मानों एक सौदा करते है। यह सौदा किसी शर्त का उल्लंघन होते ही टूट जाने का भाव रखता है और स्त्री पुरूष जब चाहे स्वेच्छा से मुक्त हो सकते है। 

    दूसरा दृष्टिकोण यह है कि विवाह कोई ठेका या सौदा नहीं है। वरन् एक अटूट धार्मिक और पवित्र संबंध है जिसमें एक बार संबंध हो गया तो उसे जीवन भर निभाना उस दम्पत्ति का परम कर्त्तव्य बन जाता है। किसी विवशता के कारण नहीं, किसी दबाव में नहीं, अपितु स्वेच्छा से प्रीतिपूर्वक एक-दूसरे के सुख-दुःख में भागीदारी होना होता है।

    एक नवीन दृष्टिकोण के अनुसार विवाह एक रूढ़िवाही परंपरा है, जिसमें बंधकर स्त्री-पुरूष जीवन भर कर्त्तव्य और दायित्वों के बोझ से दबे रहते है, जो कि दोनों के ही सुख, शांति, स्वतंत्रता व विकास के साथ ही समाज की सुख-शाति एवं एकता में बाधक है। स्वतंत्र होकर स्त्री-पुरूष को आपस मंे मिलकर काम तीतिक्षा की संतुष्टि कर लेना चाहिए और जब तक निर्वाह हो सके तब तक साथ रहें जब वैचारिक मतभेद हों तब संबंध विच्छेद कर अन्य किसी के साथ संबंध बनाने के लिये स्वतंत्रता होनी चाहिए।

    भारत में इस विचारधारा के लोग कम ही है। इसका मूल कारण हमारी आदि संस्कृति से प्राप्त ज्ञान व इस श्रेष्ट ज्ञान के आधार पर सुलझा हुआ स्पष्ट चिंतन है। प्रथम और तृतीय दृष्टिकोण के भयंकर दुष्परिणाम पश्चिमी देशों में स्पष्ट दिखाई पड़ते है। इसके बहुत कुछ दुष्परिणाम भारत में भी देखे जा सकते है। इस प्रकार के दृष्टिकोण के परिणाम स्वरूप स्त्री-पुरूषों का आपस में पशुओं की तरह व्यवहार, एक-दूसरे से आग निकलने की होड़, पारिवारिक या सामाजिक जीवन में अशांति, छोटी-छोटी बातों पर सम्बंध विच्छेद,व्यभिचार,स्वतंत्रता के नाम पर उच्छश्रंखलता, आत्महत्या जैसे जघन्य अपराध,शिशु भ्रूण हत्या,अक्षम्य,नराधम कुकृत्य इत्यादि। जिनके स्मरण मात्र से ही मनुष्य का तन-मन कंपित हो उठता है। लेकिन दुर्भाग्य से ऐसा हो रहा है और ऐसी विचारधारा धीरे-धीरे हमारी आदर्श संस्कृति को दूषित कर रही है। हमारे धर्मप्रिय देश में जहां विवाह का उद्देश्य मात्र प्रजापालन एवं मोक्ष की प्राप्ति होती थी, पहली और तीसरी विचारधारा का प्रभाव शनैः-शनैः फैल रहा है।

    मानव जीवन में विवाह एक संस्कार ही नहीं वरन् एक चमत्कार स्वरूप है जो मानव जीवन को एक नवीन दृष्टिकोण, एक नया विचार प्रदान करता है। एक नवीन उत्साह, जागृति साहस व साथी प्रदान करता है जो जीवन के हर क्षण में परछाई बनकर साथ निभाने के लिये प्रतिबद्ध होता है। 

    गृहस्थ आश्रम सब आश्रमों में श्रेष्ठ होने के कारण इसके दायित्व बढ़ जाते है। दिव्यदृष्टा जगतगुरू महर्षि दयानंद ने इन चारों आश्रमों में श्रेष्ठ गृहस्थ आश्रम के लिये कुछ नियमों का उल्लेख अपनी पुस्तक ’संस्कार विधि’ में किया है। जिनका पालन करना प्रत्येक गृहस्थ का परम कर्त्तव्य है। - 

1. नियमित स्वाध्याय करना,   2. पंचयज्ञा करना,    3. नित्य-प्रतिदिन प्रातः जागरण,   4. धर्मपूर्वक धन संचय, 5. परस्पर व्यवहार में श्रेष्ठ आचरण अपनाना। 

        स्वाध्याय से चिंतन में प्रखरता आती है और मन, वचन, वक्र, कर्म को सही दिशा मिलती है। इसलिये गृहस्थ को चाहिए कि अपने अवकाश के समय को वृद्धि, धन और हित की शीघ्र वृद्धि करने वाले वेद शास्त्र व श्रेष्ठ पुस्तकों का नियमित अध्ययन करना चाहिए। पंच यज्ञ में प्रथम है ब्रह्मयज्ञ। नियमपूर्वक सुबह-शाम ईश्वर स्तुति प्रार्थना, संध्या भजन, सुमरण व चिंतन आदि ब्रह्मयज्ञ है, जो प्रत्येक मनुष्य के लिये एक उपयोगी अनुष्ठान है। इससे ईश्वर के प्रति कर्तव्य का ज्ञान हो जाता है और वह स्वयं को अच्छे से अच्छा बना सकता है। दैवीय यज्ञ ज्ञान या हवन में ईश्वर प्रदत्त सुख-सुविधा आदि के लिये एक प्रार्थना करना व स्वाह शब्द के साथ भस्म की जाने वाली विशेष औषधियों से आसपास के वातावरण को स्वच्छ बनाना ही मुख्य प्रयोजन है। इस प्रकार से नियमित हवन करने से घर का वातावरण तो शुद्ध होगा ही साथ ही धार्मिक वातावरण निर्मित होगा और यह धार्मिकता नित्य-प्रतिदिन बढ़ती जाएगी।

माता-पिता व गुरूजनों की सेवा-सत्कार करना पितृ यज्ञ कहलाता है। इस प्रकार के यज्ञ से घर में सुख शांति का वातावरण बना रहता है। बड़ों का छोटो पर स्नेह व कृपा रहती है। अतः माताओं को चाहिए कि वह अपने बच्चों को श्रेष्ठ संस्कार प्रदान करें व बड़ों का आदर करना सिखलाएं। उन्हें प्रतिदिन चरण स्पर्श करने की आदत डलवाएं। 

 इन श्रेष्ठ आचरणों को जीवन में अपना कर प्रत्येक मनुष्य वैवाहिक जीवन का वास्तविक आनंद,सुख शॉति और समृद्धि पा कर अपना मानव जीवन लक्षय सुगमता से प्राप्त कर सकते है।

आपका ही 

शुभाकॉक्षी- अनिल भवरे


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