मैं और मेरी सामाजिक जिम्मेदारी
हम अपने अधिकारों के प्रति तो जागरूक है ही,हमें अपने सामाजिक दायित्व के लिए भी ईमानदारी से प्रयास करना होगा। ठीक वैसे ही जिस तरह हमारे माता पिता ने अपने कर्तव्यों का निर्वाहन कर हमें सुसंस्कारित व सुयोग्य बनाया। हमारा भी दायित्व है कि एक आदर्श संतान का धर्म निभाते हुए हम अपने माता-पिता के प्रति जो दायित्व और जवाबदेही है का निर्वाहन करते हुए समाज के प्रति भी एसे ही जिम्मेदार होना ही चाहिये।
अक्सर लोग बोलते है कि समाज ने मुझे क्या दिया? इससे मुझे क्या मिलेगा, इससे मेरा क्या फायदा? हमें क्या मतलब? मुझे समाज से क्या लेना-देना है? आज मैं जो कुछ भी हूं अपनी योग्यता क्षमता और अपने बल पर हूँ? हम करगें तो ही खाएगें कोई देने थोड़े आयेगा? हम भले हमारा घर भला? समाज सेवा से किसका भला हुआ जो हमारा होगा? समाज सेवा बढ़े लोगों के चोचले है? समाज सेवा तो इनकी कमाई का जरिया है? आदि आदि....। जितने लोग उतनी बातें!
आज यह देखने में आता है कि व्यक्ति अपने माता-पिता से भी यह उम्मीद करता है, और अपने देश से भी। साथ ही यह भी उम्मीद करता है कि मुझे मेरे समाज से क्या मिलेगा और क्या मिल सकता है। इसी गणित मे लगा रहता है, या कहें की, हमेशा ही उसकी स्थिति भिखारी की तरह ही बनी रहती है। उक्त पहलू पर व्यक्ति, हर पल कुछ न कुछ पाने की जुगाड़ मे लगा रहता है।
कितनी विचित्र स्थिति है भगवान ने जिसे हर तरह से सभी प्राणियों में श्रेष्ठ बनाया लेकिन उसकी संकीर्ण मनोदशा से वह निम्न से निम्नतर बनता जा रहा है। इस दुनिया मे यदि श्रेष्ठतम कोई है तो वह इन्सान। दुनिया का श्रेष्ठतम इन्सान भी अपनी संकीर्ण मानसिकता से भिखारी बन जाता है तो, उसमे पशु के लक्षण आने स्वाभाविक है। याद रहे प्रत्येक व्यक्ति के अधिकार और कर्तव्य साथ-साथ चलते हैं। उसके दायित्व के अनुसार ही उसकी परिवार समाज और राष्ट्र के प्रति जवाबदेही तय होती है। वो अधिकारों को स्वीकारता है तो उसे दायित्वों का भी निर्वाह करना ही होगा। इसके लिए परिस्थितियों को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। यह ध्यान रहे कि, जब व्यक्ति का जन्म समाज में होता है तो,समाज में जन्म के साथ ही, उसको कुछ अधिकार प्राप्त हो जाते हैं और इसके साथ ही उसका समाज के प्रति दायित्व भी उसी पल से तय हो जाते है।
वर्तमान समय में हमारे समाज के सामाजिक परिवेश की बात करे तो, इतिहास गवाह है कि, समाज को दिशा देना, उसका मार्गदर्शन करना, समाज के बुद्धिमान लोगों का दायित्व है। वे अपने दायित्व से पीछे नहीं हट सकते, क्योंकि आज भारत आजाद है तो, यह आजादी किसी गरीब या धनवान लोगों की देन नहीं है। यह बुद्धिमान देशभक्त लोगों के परिश्रम त्याग व बलिदान का ही परिणाम है। आज जो भी परिवार, समाज विकसित व साधन सम्पन्न हुये है, वे सभी समाज के बुद्धिजीवी लोगों की सामाजिक व्यवस्था के प्रति आस्था,त्याग,समर्पण और विश्वास के कारण ही है। हमारे समाज को भी उन्नति के पथ पर लाने के लिए कई प्रबुद्ध,कर्मठ,त्यागी,तपस्वी,दानी और संघर्षशील महापुरुषों ने अपना सर्वस्व व सर्वश्रेष्ठ देकर इस मुकाम तक पहुंचाया है।(कुछ नामों को याद करना अन्य के त्याग व बलिदान को कम ऑकना होगा।)
अब आप स्वयं विचार करेंकि, जो परिवार व समाज पिछड़े है उसके पीछे मूल कारण क्या है । इसका भी सटीक जवाब है कि, इसके पीछे भी एहसान फरामोश उस समय के वे बुद्धिमान, समर्थ,सक्षम व कृतघ्न लोग है, जिन्होंने समाज से लिया तो सब कुछ, लेकिन जब देने की बारी आई तो अपनी स्वार्थ पूर्ण कुटिल निकृष्ठ बूद्धि का उपयोग करते हुए, किनारा कर लिया और समाज को ठेंगा बता दिया (समाज में एसे लोगों की भी भरमार है)। हमारे समाज के पिछड़ने का कारण एसे ही कृतघ्न लोग है।
संविधान निर्माता डॉ.बी.आर.अम्बेडकर ने हमारे जैसे ही आर्थिक सामजिक रूप से पिछड़े, सबलों दवारा दबाए गए (दलित) लोगों केसाथ हमें भी आरक्षण जैसा चमत्कारिक अधिकार दिया। जिसके कारण एक व्यक्ति स्कूल, कॉलेज में प्रवेश से लेकर नौकरी पाने तक अपने इस अधिकार का प्रयोग, इतने आत्मविश्वास के साथ करता है. जैसे की खरीदा हआ हो, और फायदे पर फायदे लिये जा रहा है। वह अपने अधिकार का लाभ लेने के चक्कर मे अपने दायित्व को भूल जाते है। इसलिए बाबा साहेब ने बड़े दुखी मन से कहा कि- मुझे मेरे पढ़े-लिखे बुद्विमान लोगों ने ही धोखा दिया है। यदि ये पढे लिखे लोग इस आरक्षण का लाभ लेना अपना अधिकार समझते है, तो अपने ही पिछड़े भाई बंधुओं को पद प्रतिष्ठा पाने के बाद भूल क्यों जाते है। अपने लोगों के उत्थान और विकास के लिए आगे आकर क्यों सहयोग नहीं करते। क्या यह सही है? खुद को अपने ही लोगों से श्रेष्ठ और ऊँचा दिखाने के लिए कितनी बार अपने ही लोगों को नीचा दिखाने में कोई कसर नहीं छोड़ते।
आज भी यही हो रहा है। आज यदि समाज के कुछ अच्छे लोगों को छोड़ दें तो लगभग सभी सरकारी कर्मचारी इसमें शामिल नजर आते हैं। दलित आदिवासियों के साथ ही हमारे समाज का विकास भी सरकारी नौकरी के बलबूते ही हुआ है। सभी ने आरक्षण के अधिकार से नोकरी तो हासिल कर ली, लेकिन इसके बदले समाज के प्रति अपना दायित्व निभाने से मुकर गए। यही कारण है कि आज हमारा कतिया समाज अन्य समाजों से कई गुना पिछड़ा है और वह स्वयं भी व्यक्तिगत रूप से कमजोर ही हैं।
यह बीमारी अधिकतर हमारे अपने (दलित आदिवासी) अधिकारियों मे है। देश के 30 प्रतिशत दलितों आदिवासीयों का हक, 3 प्रतिशत दलित व आदिवासी सरकारी कर्मचारी खा रहे हैं। उन्हे यह दिखाई नहीं दे रहा है और यदि उन्हे दर्पण भी बताये तो किसकी हिम्मत, क्योंकि कोई इस लोकतान्त्रिक व्यवस्था से पंगा लेना नहीं चाहता। कारण है कि, मेरा क्या लेना-देना, मेरा क्या फायदा, ऐसे प्रश्न उसके अन्दर उत्पन्न होने लग जाते है और उसके आस-पास ऐसी ही राय देने वाले लोग,उसे कमजोर बनाते हैं। फिर याद आती है बाबा साहेब की, जो इतनी विषम परिस्थितियों मे ऐसा काम करके चले गये, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। फिर कहीं हिम्मत बढती है कि, हम तो आज उनसे कही गुना अधिक अच्छी स्थिति मे हैं।
आज यह का यह ज्वलंत चिंतनीय विषय है कि में और मेरी इस सम्मानजनक स्थिति के लिए मेरे अपनो का कितना योगदान रहा है। और मेरी उन्नति में सहभागी मेरे समाज के प्रति मेरा क्या दायित्व बनता है। में अपने उत्तरदायित्वों के प्रति कितना जिम्मेदार हूं।मैनें अपनी पारिवारिक जिम्मेदारी के साथ अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का निर्वहन कितनी ईमानदारी से किया है। क्या में अपने स्वजनों के प्रति कृतज्ञभाव रखता हूँ या कृतघ्न हो गया हुँ। मुझे यह सदैव स्मरण रहना चाहिए कि में आज जो भी हूं उसमें स्वजनों और समाज का अमूल्य योगदान है। इस लिए में समाज का आजीवन ऋणी हूँ। मेरे द्वारा समाज हित में तन-मन-धन से सहयोग करना, कोई उपकार नही बल्कि समाज के प्रति मेरा कृतज्ञभाव है। ऐसा करते हुए में पितृ ऋण या सामाजिक ऋण चुकाने के प्रयास कर रहा हूँ। जो मेरे जीवनउत्सर्ग पर भी पूर्ण नही होगा। मेरे बाद मेरे सामाजिक दायित्यों को निभाने की जिम्मेदारी मेरे पुत्र पुत्रियों की होगी। यह भाव सदैव मन में होना चाहिए। यह मेरा समाज के प्रति कृतज्ञभाव और नैतिक जिम्मेदारी है। शेष शुभ।
-(आभार सहित)
आपका ही- अनिल भवरे