हमारे कर्तव्य और अधिकार
कर्तव्य और अधिकार के दूसरे पहलू पर हम गौर करें तो पाएँगे कि आदिकाल से ही अधिकार देवों के लिए और कर्तव्य दैत्यों के लिए है। दैव अधिकारों के तहत विलासित के अँधे उपासक, सत्ता के उपभोगी हैं और दैत्य कर्तव्यों के साथ शक्ति की अॅधी उपासना में निरन्तर लीन रहते हैं। शक्तिशाली,विद्वान, बुद्विजीवियों के व्दारा ही कर्तव्य और अधिकार शब्दों को अपने निजी स्वार्थ के लिए निर्मित किया गया है। कमजोर वर्ग के लोगों एवं मूर्ख और निर्बुद्वि वाले व्यक्तियों को कर्तव्यों के फेर में डालकर कोलू का बैल बनाया गया है, जो निरन्तर फेरे लगाता रहता है। परिवार,समाज,देश, विश्व की भलाई के लिए कर्तव्य और अधिकार को संविलियन कर कर्तव्य को विलुप्त किया जाकर अधिकार शब्द को रहने दिया जाये। अधिकार की एक नई परिभाषा लिखने की आवश्यकता है। तात्पर्य यह है कि परिवार में माता-पिता, भाई-बहन की सेवा भाव का दायित्व मेरा कर्तव्य नहीं अधिकार है। समाज के प्रत्येक व्यक्ति के हितों की रक्षा, उनका हर स्तर पर विकास का दायित्व मेरा कर्तव्य नहीं अधिकार है। देश की रक्षा, देश के प्राकृतिक संसाधनों पर हर देशवासी को समान अधिकार दिलाना कर्तव्य नहीं मेरा अधिकार है। विश्व कल्याण, विश्व शांति की स्थापना करना किसी एक देश का कर्तव्य नहीं, बल्कि विश्व के समस्त देशों का अधिकार होना चाहिए।
क्या हम ऐसा कर सकते हैं?
-सुनील चौरे
होशंगाबाद-हरदा मो.-9826806971