अधिकार और कर्तव्य विशेषांक
विचारणीय-
सामाजिक बैठकों व सम्मेलनों की सार्थकता
- किसी भी समाज के बारे में यह बात तो तय है कि है कि संगठनों में सब कुछ सही नजर नहीं आता। सभी को यह चिंता रहती है कि समाज को कैसे संगठित किया जाये। समाज को संगठित करने मे सम्मेलन, बैठकों, विचार मंथन शिविरों आदि की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। मुख्य बात सह है कि इन सम्मेलनों में व्यय किया जाने वाला अमूल्य समय,धन राशी,और परिश्रम के मूल्य पर समाज को अब तक क्या मिला। इसके निकटतम व दूरगामी परिणाम क्या होंगें,समाज को इसका कितना लाभ मिल सकेगा। इस आधार पर मूल्यांकन करने के उपरॉत ही आयोजन की सफलता व इसकी सार्थकता निर्भर है। यदि आयोजन का उद्देश्य पूर्ण न हो तो एसे आयोजन का क्या लाभ? समाज पर इसका अतिरिक्त भार क्यों डाला जाए। भारत जैसे लोकतान्त्रिक देश मंे अपने अधिकारों के लिए समाज विशेष या वर्ग द्वारा आंदोलन का रास्ता अपनाना तथा सामाजिक सम्मेलनों द्वारा सरकार से अपने हकों की मांग करना. एक महत्वपूर्ण हथियार के रूप मे उपयोग किया जाता है, और यह उचित भी है। सामाजिक सम्मेलन एक तरफ जहाँ, समाज में अपने अधिकारों के प्रति जागृति पैदा करते हैं, वही दूसरी तरफ, इस तरह के आयोजनों को गम्भीरता पूर्वक या पूर्ण मजबूती के साथ नही किया जाता है तो, यह समाज व संगठन की पोल भी खोल देते हैं। जो समाज के लिए बहुत घातक हो सकता है, जाने क्यों कि इससे देश में कार्यरत राजनैतिक पार्टियों को सीधा संदेश जाता है कि, कोनसा समाज अपने अधिकारों के प्रति है जागरूक है, और कौन सुशुप्त(सोया हुआ) है । उसी के सफलता अनुरूप सरकार अपनी नितियॉ बनाती है और क्रियान्वित करती है। जिसका जीता जागता उदाहरण- गुर्जर आरक्षण, जिस पर प्रत्येक सरकार चाहे कांग्रेस या बी.जे.पी. सभी गुर्जरों के सामने नतमस्तक है। लोकतन्त्र में जन-बल ही सबसे बड़ा बल है, जिसके सामने सरकार को झुकना ही होगा, इसमे देर-सवेर हो सकती है, लेकिन यह सौ फिसदी सच है, मूल जरूरत है तो, निरन्तर प्रयास की।
अब प्रश्न उठता है कि ऐसे सम्मेलनों आयोजनों को सफल बनाने की जिम्मेदारी किसकी है। इस तरह के आयोजन मूलत समाज के जनाधार वाले नेता जैसे-ऐसे नेता जिनका समाज सेवा का लम्बा इतिहास रहा है। जिसकी सेवा को समाज सम्मान की उनका नजर से देखता आ रहा है या समाज की राष्ट्रीय,राज्यस्तरीय, जिलास्तरीय संस्थाओं द्वारा अपने क्षेत्राधिकार मे सम्मेलनों का आयोजन किया जाना चाहिये।
किसी भी सम्मेलन की सफलता, उसके आयोजकों पर ही निर्भर करती है। क्योंकि समाज मे लोग वही है, केवल लीडर बदलते रहते हैं। नेतृत्व ही समाज को सफल बनाता है और वही उसकी असफलता का कारण बनता है। इतिहास इस बात का गवाह है। यह वही भारत है, जो 400 वर्ष अग्रेजों तथा 600 वर्षो तक मुगलों का गुलाम रहा है। इसी गुलाम भारत में सुभाषचन्द्र बोस, मोहनदास करमचंद गांधी, डॉ. बी.आर. अम्बेडकर जैसे महान कान्तिवीरों ने देश की जनता को सश्क्त नेतत्व दिया।
बात नेतृत्व की करे तो वह हिटलर ही था, जिसकी एक आवाज पर जर्मनी अपना सब कुछ दांव पर लगाने के लिए तैयार रहता था। ठीक उसी प्रकार सामाजिक सम्मेलनों की सफलता उसके नेतृत्व पर निर्भर करती है। सम्मेलन जब जिला स्तर का हो तो उसका नेतृत्व जिलास्तर के मजबूत जनाधार वाले नेता के नियन्त्रण मे होना चाहिये और जब प्रदेशस्तर का हो तो, उसका नेतृत्व प्रदेश स्तर के मजबूत जनाधार वाले व्यक्तियों के पास होना चाहिये। ठीक उसी प्रकार राष्ट्रीय स्तर के सम्मेलन की अगुवाई राष्ट्रीय नेताओं तथा समाज के सबसे मजबूत समाजसेवी, अग्रणी नेताओं द्वारा कि जानी चाहिये क्योंकि यह एक सामान्य सी बात है कि, कोई भी व्यक्ति, किसी भी समारोह मे जाने के, निमन्त्रण से पहले, निमन्त्रण कार्ड को देखता है कि, कौन-कौन-सा फलाना-फलाना व्यक्ति आमन्त्रित कर रहा है। यह बात बहत छोटी सी है लेकिन समारोह व सम्मेलनों की सफलता मे इसका महत्वपूर्ण योगदान होता है, इसलिए आयोजक व निवेदक, शीर्ष मजबूत जनाधार वाले नेता होने चाहिये। वास्तविक वस्तुस्थिति की बात करें तो, यह देखने व सुनने में आता है कि सामाजिक सम्मेलनों मे आमतौर पर राष्ट्रीय व प्रदेश स्तर के राजनैतिक नेताओं को अतिथि व मुख्य अतिथि के तौर पर आमन्त्रित किया जाता है। जिसका मूल उद्देश्य अपने समाज की राजनैतिक व संख्यात्मक ताकत को प्रदर्शित करना होता है। हालांकि यहा तरीका कुछ हद तक बहुत सही व कारगर भी होता है। इस तरह के सम्मेलन समाज के शीर्ष व लोकप्रिय नेतृत्व की दशा मे ही सफल हुए है क्यों कि समाज मे, लोगों की भीड़, उनका संख्यात्मक बल, अपनी महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है, आमतौर पर राजनैतिक पार्टिया अपने वोट बैंक (संख्यात्मक बल) के पीछे घूमती है, उन्हे किसी समाज से कोई लेना-देना नही होता है। उनका मूल लक्ष्य अपने वोटबैंक मे बढोतरी करना तथा उसे बनाये रखना। ऐसी स्थिति मे जब सामाजिक सम्मेलनों मे राष्ट्रीय या राज्य स्तरीय राजनेता अतिथि के तोर पर पधारते है तो उनका मूल उद्देश्य अधिकतम लोगों की सभा को सम्बोधित करना तथा अपने वोट बैंक को बनाये रखना होता है। ऐसी स्थिति मे सामाजिक सम्मेलन मे यदि समाज का बहुसंख्यक तबका शामिल नही होता है तो, वह समाज के लिए घातक है और साथ ही समाज का राजनैतिक जनाधार भी खतरे मे पड जाता है। जिसके दूरगामी परिणाम होते है जो हमारी भावी पीढ़ी के लिए भी बहुत खतरनाक साबित हो सकता है। ऐसे सम्मेलन समाज को संगठित करते हैं. वही दूसरी तरह उनके आपसी टुकड़ो को भी उजागर करते हैं। इसलिए इस तरह के सम्मेलनों का आयोजन बड़े सावधानीपूर्ण तरिके से व सम्पूर्ण समाज को विश्वास मे लेकर तथा सर्वमान्य नेतृत्व के सानिध्य मे आयोजित किया जाना चाहिये। जिसमे समाज को दिशा देने वाले, त्यागी धर्मगुरूओं,पुराने व अनुभवी समाजसेवकों को भी शामिल किया जाना चाहिये। क्यों कि इस तरह के सफल आयोजन समाज के इतिहास का हिस्सा बनते हैं। जो भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्त्रोत बने रहते हैं। वही असफल आयोजन समाज को हतोत्साहित करते है और समाज की राजनैतिक पहचान के लिए खतरा भी बन सकते है क्यों कि लोकतान्त्रिक देश मे जन बल ही सर्वेसर्वा होता है। यह बहुत महत्वपूर्ण है कि, सामाजिक सम्मेलनों का आयोजन समाज हित में, समाज को संगठित करने के लिये किया जाना चाहिये, यदि ऐसे आयोजन का उद्देश्य, कुछ चुंनिदा लोगों को राजनैतिक फायदा पहुचाने के लिए किया गया है,तो फिर इसकी सफलता की उम्मीद करना बेमानी है, क्यों कि समाज के लोग इस बात को अच्छी तरह जानते है कि, कौन क्या रहा है, और क्यों कर रहा है, किसे धोखा दे रहा है। क्या समाज के हित मे कर रहा है या अपने निजी स्वार्थ पर्ति हेतू कर रहा है, क्यों कि किसी भी नेता का वजूद उसके समाज से है। समाज का वजूद नेता से नही, समाज, नेता बनाता है और मिटाता भी है। इसलिए ऐसे सम्मेलनों से स्वार्थपूर्ति वाले तत्वों को सावधानी पूर्वक चिन्हित कर, किनारे लगाने की आवश्यकता है, ताकि वे समाज का अपने नीजी स्वार्थ पूर्ति हेतु सौदा न कर सके।
विनम्र आभार सहित!
-महेश चौरे (पटेल) सिंगनपुर,हरदा
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