Recentसमाज को आवहृ्वान नामक पुस्तक से सभार। लेखक का नाम ज्ञात नहीं है। पुस्तक के पेज 7 सं 13 तक के पृष्ठ प्राप्त हुए। पुस्तक के अंश में बिना किसी परिवर्तन के कतिया समाज की जानकारी प्रस्तुत की गई है। पुनः लेखक को आभार।- अनिल भवरे
समाज को आहृवान
“काठिया क्षत्रिय जाति की उत्पत्ति एवं विकास”
मध्यप्रदेश के विशेष संदर्भ में
इतिहास एक ऐसा दर्पण है, जो हर युग, हर काल का जीता-जागता प्रतिबिम्ब प्रस्तुत करता है। मैने काठिया क्षत्रिय जाति के अतीत का प्रतिबिम्ब देखने की चाहत से इतिहास दर्पण में झांकने का प्रयत्न किया तो पाया कि सभ्यता के अभ्युदय के साथ-साथ मानव विकास के पथ पर अग्रसर होता रहा है। इसी क्रम में भारतवर्ष में प्रथम सभ्यता के रुप में सैंधव सभ्यता के दिग्दर्शन होते हैं। भारत की यह प्रथम सभ्यता अपने अत्याधुनिक स्वरुप के कारण उच्चकोटि की आंकी गई है। इस सभ्यता में सामाजिक व्यवस्था के लिये लोगों को चार भागों में बांटा गया था - विद्वान, योद्धा, व्यवसायी और श्रमजीवी। ऋग्वैदिक आर्यों के काल में वर्ण और जाति व्यवस्था थी अथवा नहीं ठीक-ठीक नहीं बताया जा सकता। कुछ विद्वान ऋग्वेद का "पुरुषसूक्त जो वर्ण एवं जाति व्यवस्था का साक्षी है, को बाद का मानते हैं जो कि उसमें जोड़ दिया गया था। तथापि समाज को व्यवस्था देने के लिये गुण-कर्म के आधार पर वर्गों का उदय हो चुका था। उत्तरवैदिक काल में वर्णों ने वर्गों का रूप धारण किया। यही आगे चलकर जाति के उद्भव का महत्वपूर्ण कारण बना। वर्णों की उत्पत्ति के संबंध में यह मान्यता है कि - "ब्रह्म के शीष से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, पेट या जंघाओं से वैश्य तथा पैरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई। किन्तु यह मान्यता मानव उत्पत्ति के वैज्ञानिक सिद्धांतों से परे एक भ्रममूलक परिकल्पना है। "गीता" में वर्गों की उत्पत्ति के संबंध में यह कहा गया है - “चातुवर्ण्य मया सृष्टं गुण-कर्म विभागशः” कहने का आशय यह है कि वर्गों से ही जाति की उत्पत्ति हुई है। धीरे-धीरे ब्राह्मणों ने अपने बुद्धि चातुर्य से गुण-कर्म पर आधारित इस वर्ण व्यवस्था को जन्म पर आधारित बना दिया और अनेकों जातियों और उपजातियों में विभक्त होकर यह विकास के पथ पर अग्रसर होती गई।
ऊपर जाति की उत्पत्ति की एक संक्षिप्त पृष्ठभूमि प्रस्तुत की गई है। अब काठिया क्षत्रिय जाति की उत्पत्ति पर एक विहंगम दृष्टि डालें।
मेरे अध्ययन के दौरान मुझे सर्वप्रथम वैदिक ग्रंथों में इस जाति का उल्लेख प्राप्त हुआ जो यह प्रदर्शित करता है कि कठ (काठिया) वैशम्पायन के उदीच्य शिष्य थे। उक्त संदर्भ में डॉ. बुद्धप्रकाश ने अपने "ऐशियेंट पंजाब” नामक इतिहास ग्रंथ में प्रकाश डाला है। - "पातंजलि के समय में वैदिक साहित्य के संरक्षक और व्याख्याकार के रुप में उनकी ख्याति दूर दूर तक फैल चुकी थी। पाणिनि ने भी अपनी "अष्टाध्यायी” में कठ क्षत्रिय जाति का उल्लेख किया है।" कठ लोग बड़ी प्राचीन आर्य जाति के थे। उनका उल्लेख वैदिक साहित्य में तो मिलता ही है, उपनिषदों में भी मिलता है। उनके नाम पर एक उपनिषद 'कठोपनिषद्' भी लिखा गया। यूनानी इतिहास लेखक 'स्राबो' लिखता है कि “कठों में सौंदर्य का साका चलता था। सबसे सुन्दर पुरुष को वे अपना राजा चुनते थे। तत्पश्चात् सिकन्दर के आक्रमण कालीन इतिहास ग्रंथों में 'कठगठाराज्य' का वृहद उल्लेख प्राप्त होता है। कठ गणराज्य ई. पू. 326 में सिंधु नदी के संगम पर स्थित था। इसकी राजधानी 'सांकल' थी। डॉ. विमलचंद्र पाण्डेय ने अपने प्रसिद्ध इतिहास ग्रन्थ 'प्राचीन भारत का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास में यह लिखा है कि - "रावी नदी को पार करने के पश्चात् सिकन्दर की मुठभेड़ कठों से हुई जो प्रसिद्ध योद्धा थे और जिन्होनें अपनी राजधानी संगल की रक्षा के हेतु अनेक मित्रों की सहायता प्राप्त कर ली थी। कठों ने अपनी नीति और वीरता से सिकन्दर का जमकर सामना किया, यहाँ तक कि सिकन्दर के अश्वारोही वहाँ पर निष्फल से होने लगे। सिकन्दर ने अन्त में पदाति सेना की सहायता से बड़ी कठिनाई एवं घोर संग्राम के पश्चात् भारतीयों का नगर की दीवारों में शरण लेने के लिये विवश किया। इसी समय पोरस ससैन्य सिकन्दर की सहायता के लिये आ पहुँचा। अतः रात्रि में कठों ने एक झील के द्वारा भागने का प्रयत्न किया, परन्तु सिकन्दर ने नगर व कठों के दुर्ग को धराशायी कर दिया और अनेकों को मौत के घाट उतार दिया। तथापि कठों के ऊपर विजय सिकन्दर को मंहगी पड़ी। क्योंकि ग्रीक लेखकों के वर्णन से यह पता चलता है कि इस युद्ध में असामान्य रूप से यूनानी काल के गाल में समाविष्ट हुये और आहत हुये। कठों के संदर्भ में डॉ. ओमप्रकाश ने अपने प्राचीन भारत के इतिहास में लिखा है - "कठ जाति अपने साहस और रणकौशल के लिये प्रसिद्ध थी। ये सबसे सुन्दर पुरुष को अपना राजा चुनते थे। इस जाति में पति के मरने के बाद स्त्रियां सती हो जाती थीं। कठों ने सिकन्दर के साथ बड़ी वीरता से संघर्ष किया। कठों के इस कठिन मोर्चे से सिकन्दर इतना क्रुद्ध हुआ कि उसने संगल के किले को मिट्टी में मिला दिया। इस युद्ध में कठों के 17,000 वीर काम आये और 70,000 बन्दी बना लिये गये। इस प्रकार भारत में कठ जाति के उद्य एवं विस्तार की जानकारी सर्वप्रथम वैदिक साहित्यों एवं कठ गणराज्य के संक्षिप्त इतिहास से प्राप्त होती है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि काठिया क्षत्रिय जाति का एक प्रारंभिक उदय एवं विकास आर्यों के भारत आगमन से शुरु होता है। कर्नल जेम्स टॉड ने अपने पश्चिमी भारत की यात्रा' नामक ग्रंथ में काठियों' (कठ) को मध्य एशिया के किसी एक ही स्थान से विभिन्न स्थानों को प्राव्रजन कर गये ऐसा स्वीकारा है। उन्होंने काठी जाति को दो राजपूतों का एक अंग माना है जो अपने गौरव पूर्ण, ऊँचे कद और वीरता के लिये प्रसिद्ध थे। ये लोग अपनी तलवार की भांति हल की भी पूजा करते थे। जेम्स टॉड ने भी स्वीकार किया है कि यह जाति सिकन्दर के आक्रमण के समय भारत के पश्चिमी प्रान्त जिसकी राजधानी सांगल थी, गुरुदासपुर के आसपास पंजाब राज्य में विद्यमान थी। इस वीर और लड़ाकू जाति ने सिकन्दर को भारी मात दी थी। यद्यपि पौरव की सहायता से सिकन्दर ने इसे विनष्ट कर दिया था। संभवत: यही कारण था कि आगे चलकर इस जाति को पंजाब से उत्तरप्रदेश, राजस्थान एवं गुजरात की ओर प्रयाण करना पड़ा। इस संबंध में कोई ऐतिहासिक साक्ष्य मुझे अभी तक नहीं मिला कि कब यह जाति गुजरात के काठियावाड़ प्रदेश में प्रवेश करती है ? किन्तु इस बात का प्रमाण अवश्य मिलता है कि इसी जाति के कारण सौराष्ट्र का नाम काठियावाड़ पड़ा। संभवतः ई. सन् के आरम्भिक चरण में ये मालवों के साथ होते हुये राजस्थान से दक्षिणवर्ती राज्य सौराष्ट्र में आ बसे।' राजपुताने के भट्ट ग्रंथों से यह पता चलता है कि इन्होंने यादवों से बड़ा युद्ध किया था। ऐसा भी उल्लेख मिलता है कि महाराजा पृथ्वीराज चौहान तथा जयचन्द्र की सेनाओं में भी यह वीर जाति सेनानी का कार्य करती थी। ये अन्हिल वाड़ापाटन के महाराज के अधीन सामन्तों के रूप में भी कार्य करते थे। मुझे ऐसा जान पड़ता है कि काठियावाड़ से ही इनका विस्तार मध्यप्रदेश की ओर बढ़ा। नर्मदा तटवर्ती प्रदेशों में पश्चिम से पूर्व की ओर ये बढ़ते गये। कठों या काठियों की नर्मदांचल में (मध्यप्रदेश में) निवास करने वाली शाखा में से कुछ के गोत्रनाम नाग, नागवंशी, नागोत्रा, नागेश आदि मिलते हैं तथा इनके इष्टदेव 'शिव' हैं। यह तथ्य एक अजीब प्रश्नचिन्ह हमारे समक्ष उत्पन्न कर देता है। प्रश्न उठता है - क्या काठियों के नागों के साथ वैवाहिक संबंध थे? मुझे ऐसा जान पड़ता है कि गुप्त साम्राज्य के उदय से पूर्व तथा समुद्रगुप्त के काल में (325 ई. से 375 ई.) उत्तर-पश्चिम और मध्य भारत में नागवंश के विस्तृत राज्य स्थापित हुये थे। जैसे - आधुनिक बरेली में राजा अच्युत का अहिछत्र का राज्य, विदिशा में गणपतिनाग का राज्य, आधुनिक ग्वालियर के समीप पद्मपवाया में नागसेन का राज्य आदि। गणपतिनाग के नेतृत्व में तो नागसेन, नागदत्त आदि नागराजाओं ने संघ बनाये थे और समुद्रगुप्त की शक्ति को चुनौती दी थीइतने पराक्रमी और समृद्धिशाली नाग राजाओं के प्रभाव से काठिया क्षत्रिय जाति अपने आप को दूर न रख सकी होगी तथा दोनों के बीच सांस्कृतिक समन्वय हो गया होगा। इतिहास इस बात का साक्षी है कि आर्यों का नागों के साथ सांस्कृतिक समन्वय पूर्व काल से ही होता चला आया था। जैसे- कुन्ती का नाग कन्या होकर भी पांडव की रानी बनना, मोहिनी का नागकन्या होकर भी जनमेजय की पत्नी बनना, उलूपी नागकन्या का अर्जुन की पत्नी बनना इत्यादि उद्धरण इस बात के ठोस प्रमाण हैं। इसके अलावा होशंगाबाद जिले की सोहागपुर तहसील (म. प्र.) में भटगांव नामक स्थल से प्राप्त जानकारी के अनुसार - '13वीं, 14वीं शताब्दी में भटगांव नागराजाओं की राजधानी था।
म. प्र. में होशंगाबाद काठियों का भी केन्द्र स्थल रहा है। संभवतः यहीं से इस जाति का फैलाव मध्यप्रदेश के शेष हिस्सों में हुआ, क्योंकि नर्मदा के किनारे किनारे इनका विस्तार इस नदी के उद्गम स्थल अमरकंटक (शहडोल) तक दिखाई पड़ता है। अनेक पश्चिमी तथा भारतीय इतिहास लेखकों ने भी कठ, काठी या काठिया, कात्तिया को एक ही माना है तथा इनकी उत्पत्ति क्षत्रियों से मानी है। कर्नल टॉड ने राजस्थान के इतिहास में काठी या काठिया जाति को राजपूतों के छत्तीस कुलों में से एक माना है। उन्होंने इस जाति के चार भेद किये हैं - गढ़वाल, मंडीलवाल, पठारिया और डुलबुहा। इनके क्षत्रिय जाति के उल्लेख क्रम में काठिया जाति 16वें नम्बर पर है। उक्त भेद जैसे - गढ़वाल, पठारिया वर्तमान काठियों के उपनामों में आज भी प्रचलित दृष्टिगोचर होते हैं। इससे स्पष्ट प्रमाणित होता है कि काठी या काठिया का ही अप्रभंश 'कात्तिया है। मिस्टर कुक ने भी काठियों को राजपूतों के वंश से उत्पन्न माना है। उनका मत है कि इनके पुरखे कभी शासन का विरोध करने पर कैद कर लिये गये थे और इस शर्त पर छोड़े गये कि उनकी औरतें सूत कातने का धंधा करेंगी। मध्यप्रदेश में कहीं-कहीं इस जाति के लोग रहटा राजपूत' भी कहलाते हैं। भारतीय विद्वानों में पंडित छोटेलाल शर्मा का मत है कि - "ये लोग अपने आप को क्षत्रिय वर्ण में मानते हैं तथा इस जाति की ऐतिहासिक प्रसिद्धि को देखकर यह जाति क्षत्रिय मानी जा सकती है।" पंडित ज्वालाप्रसाद जी मिश्र के अनुसार - “यह जाति आज भी आजमगढ़ (उ. प्र.) के जिलों में पाई जाती है, तथा ये अपने को क्षत्रिय कहते उपरोक्त घटनाक्रम इस बात का स्पष्ट निष्कर्ष प्रस्तुत करता है कि पूर्व की कठ या काठी अथवा काठिया जाति का अवशेष वर्तमाल मध्यप्रदेश की 'कात्तिया' जाति है। इनके पूर्वज कठ से निकलकर निरंतर विकास पथ पर अग्रसर होती हुई यह जाति काठी, काठिया नामक पड़ावों से होती हुई आज 10 - इस सूत कातने के धंधे के कारण भी इस जाति का नाम संभवतः कठिया से अपभ्रंशित होकर 'कात्तिया' पड़ गया।
मध्य प्रदेश के नर्मदांचल में 'कात्तिया' भ्रममूलक संज्ञा के रूप में दृष्टिगोचर होती है। नामकरण के संदर्भ में कुछ प्रबुद्ध जनों ने एकमत होकर सूत कातने से कात्तिया संज्ञा के उद्य का आधार प्रस्तुत किया है तथा अपने उद्गारों में ऐसा निवेदन किया है कि नामकरण के संदर्भ में इससे पृथक किसी दूसरे प्रकार के तर्क-वितर्क में न पड़ा जाये। लेकिन माननीय विद्वानों से मेरा विनम्र सवाल है कि बौद्धिक दृष्टि कहीं अन्वेषण से विमुख हुई है ? सत्य कहीं छिपा है ? इतिहास साक्षी है कि सभ्यता के उत्कर्ष काल से लगातार यह जाति न तो सूत कातती आई है और न किसी खास युग में अधिकाधिक लोग केवल इसी धंधे से जीविकोपार्जन करते रहे हैं। न केवल यह जाति बल्कि भारतवर्ष की समस्त मानवता का भरण पोषण कृषि कर्म पर आधारित है। हाँ यह अवश्य माना जा सकता है कि किसी अंचल विशेष का कोई भूभाग इस धंधे में संलग्न रहा हो। जैसा कि मि. क्रुक के वर्णन से या संत भूरा भगत एवं संत चोखा भगत के विशेष संदर्भ में ऐसे उल्लेख आये है और उसी को अंतिम आधार मानकर “कात्तिया” शब्द का बड़ा ही सीमित अर्थ ग्रहण किया गया है तथा लोगों की अवधारणा किच्चित उसी पर केन्द्रित हो गई है। लेकिन इससे भी आगे बढ़कर यदि आपके ज्ञान चक्षु कुछ देख पाने में समर्थ होते हैं तो इस जाति का गौरवपूर्ण अतीत आपको अवश्य नजर आयेगा। आर्यों के भारत आगमन से लेकर आज तक का सारा इतिहास इस जाति की गौरव गाथा से भरा पड़ा है। आज आवश्यकता है उसके अन्वेषण की, उसके अध्ययन और अध्यापन की, जन - जन में उसके प्रचार-प्रसार की । क्योंकि सभ्यता के प्रथम चरण में यह जाति वैदिक साहित्य के संरक्षक और व्याख्याकार के रूप में तथा तलवार धारक वीर रक्षक के रूप में दिखाई पड़ती है जिसने यूनानियों के छक्के छुड़ा दिये थे तो द्वितीय चरण में सामन्तों और राजाओं के स्वरूप में उसका प्रतिबिम्ब दिखाई पड़ता है। जैसा कि राजस्थान और काठियावाड़ के इतिहास ग्रंथो मे उल्लेख आता है। सभवतः गुप्त युग के समकालीन नाग राजाओं से कठो का पारिवारिक एवं सामाजिक संबंध स्थापित हो चुका था, जिसकी पुष्टि भगवान शिव को आराध्य देव के रूप में स्वीकार किए जाने से तथा होशंगाबाद जिले के "भटगाँव' का नाग राजाओं की राजधानी होने के साक्ष्य से होती है। लेकिन शत् - प्रतिशत लोगों ने कृषि कर्म को ही परम्परागत रूप से स्वीकारा है। ऐसा सूक्ष्म आंकलन एवं मूल्यांकन करने पर ज्ञात होता है। निष्कर्षतः यही कहना श्रेयस्कर होगा कि इस जाति का नामकरण महज सूत कातने के धंधे पर, आधारित नहीं है। वह पुरातन कठ - काठियों से बिगड़ता हुआ “कात्तिया” रूप में शेष है। कात्तिया (काठिया) आज धर्म का प्रतीक है अर्थात दूसरों की रक्षा, सहयोग, उपकार, स्नेह का महाव्रत लेकर यह जाति सदा - सदा से कर्मभूमि में समर्पित होती आई है और सदा समर्पित होती रहेगी।
संदर्भ
1-ओम प्रकाश-प्राचीन भारत का राजनीतिक इतिहास, पृष्ठ-44
२ - ऋग्वेद – पुरुषसूक्त
3- स्राबो, भैककृण्डल का प्राचीन भारत, पृष्ठ – 38
4- जेम्स टॉड ने कठ जाति को 'काठी' या 'काठिया' नाम से उल्लेखित किया है।
5- डॉ. बुद्ध प्रकाश, “ऐशियेंट पंजाब' - "सिकन्दर ने कठों के लिये किले को ध्वस्त कर दिया तथा भीषण जनसंहार हुआ फलतः कठ (Kattia) घुम्मकड़ों में से बचे हुये लोग पंजाब के मैदानों, उत्तरप्रदेश तथा काठियावाड़ क्षेत्रों की ओर चले गये।
- प्राचीन भारत का इतिहास, ले. - डॉ. ओमप्रकाश, पृ.201 1- वही
8- गुप्त साम्राज्य का सामाजिक एवं सांस्कृतिक इतिहास लेखक - बी. एस. लूणिया, पृष्ठ 173 - 177 9- महाभारत में उल्लेख आया है कि नागराजा वासुकि पुत्री उलूफी का विवाह अर्जुन के साथ हुआ था।